जब TV खरीदने की बात आती है तो बाजार में विकल्पों की भरमार है. हम असमंजस में पड़ जाते हैं कि कौन सा टीवी अच्छा है. तो आपको फेसला करने में आसानी हो इसके लिए जरूरी है कि आप पहले तय कर लें कि आपको किस तरह की टीवी चाहिए. LCD चाहिए LED या Plasma. ये टीवी बाजार में पाए जाने वाले आम मॉडलों में से हैं. जहां इन्हें देखने का अनुभव लगभग एक समान है वहीं कुछ ऐसे अंतर हैं जिन पर आप इन्हें खरीदने के पहले विचार कर सकते हैं.
इस लेख में हम आपको कुछ ऐसी जानकारी देंगे जिनकी मदद से आपको ये तय कर पाने में सहूलियत होगी कि कौन सी टीवी LCD या LED खरीदें. इससे आपको अपने टेलीविजन की उम्र लंबी करने से जुड़े नुस्खे भी मिलेंगे. इससे आपके पैसे वसूल होने में मदद मिलेगी.
आजकल बाजार में आमतौर पर तीन सबसे प्रमुख स्क्रीन देखने को मिलते हैं: LCD, LED, और Plasma.
एलसीडी, या लिक्विड क्रिस्टल डिस्पले, टेलीविजन में फ्लैट-पैनल डिस्पले होता है. यह स्क्रीन लाइट को रोकने या उसे गुजरने देने के लिए लिक्विट क्रिस्टल के लाइट-मॉड्यूलिंग गुणों का इस्तेमाल करती है. इनमें से हर क्रिस्टल (जिन्हें आमतौर पर पिक्सल कहा जाता है) ईमेज का नन्हा टुकड़ा तैयार करता है और एक साथ मिलकर एकदम स्पष्ट ईमेज बनाता है. बिजली के करंट को घटाकर या बढ़ाकर इस ईमेज के रंग और पारदर्शिता को बदला जा सकता है.
आमतौर पर एलसीडी मॉडल के साथ तीन तरह की दिक्कतें पेश आती हैं. पहला तो स्क्रीन के रेस्पॉन्स टाइम. एलसीडी डिवाइस एक छोटे "प्रोसेसर" का प्रयोग करता है जो पिक्सल सिंक्रोनाइजेशन के साथ संतुलन बनाता है. और समय बीतने के साथ, प्रोसेसर के धीमे पड़ने की संभावना होती है. धीमे प्रोसेसर से रंग बदलने, अचानक धारियां पड़ने जैसी दिक्कतें आने लगती हैं. आपके टेलीविजन को रीकैलिबरेट करके इस दिक्कत को ठीक किया जा सकता है.
एलसीडी मॉडल के साथ दूसरी दिक्कत ये है कि इनके टूटने का खतरा अधिक होता है. आमतौर पर इसके स्क्रीन के बारे में प्रचार किया जाता है कि यह प्लाज्मा टेलीविजन से "मजबूत" है. लेकिन एलसीडी स्क्रीन अटूट नहीं है कि कभी ना टूटे. यदि और जब पिक्सल स्क्रीन की परतों के बीच फंस जाती है या आ जाती है तो वे आपकी स्क्रीन पर काला धब्बा बनाते हैं जिन्हें हटाना असंभव होता है.
अाखिर में हम यही कहेंगे कि एलसीडी टीवी को जरूरत से अधिक ब्राइट होने के लिए जाना जाता है. समय गुजरने के साथ एक्सपोजिशन लेवल में अंतर आ सकता है.
तुलना करें तो, एलईडी स्क्रीन में इनमें से किसी तरह की दिक्कत या यूं कहें कि बहुत कम दिक्कत आती है.
एलईडी, या लाइट-एमिटिंग डायोड स्क्रीन अपने समरुप एलसीडी वाली तकनीक का ही प्रयोग करता है. हां एक अंतर है कि ये फ्लोरोसेंट बल्ब से प्रकाशित होने की जगह लाइट निकालने वाले डायोड से जलते हैं. ये बल्ब तुलनात्मक रूप से अधिक छोटे होते हैं. लेकिन फ्लोरोसेंट बल्ब से ये अधिक सक्षम होते हैं. इसका अर्थ ये हुआ कि एक ही तरह की गुणवत्ता की तस्वीरों के लिए एलईडी स्क्रीन एलसीडी स्क्रीन की तुलना में अक्सर अधिक पतला होता है.
एलईडी श्रेणी को दो उप-श्रेणियों में बांटा जा सकता है. डायरेक्ट एलईडी और एज-लिट एलईजी. डायरेक्ट एलईडी स्क्रीन लाइट-एमिटिंग डायोड से प्रकाशित होते हैं. और ये सीधा स्क्रीन के पीछे पाए जाते हैं. इससे ब्राइटनेस यानी रोशनी और डार्कनेस यानी अंधेरे को अधिक अच्छे तरीके से स्क्रीन पर डिस्पले करने में मदद मिलती है. एज-लिट एलईईड स्क्रीन के किनारों पर मौजूद छोटे डायोड की मदद से प्रकाशित होते हैं. और ये डायरेक्ट एलईडी मॉडल से अातौर पर हल्के होते हैं.
प्लाज्मा स्क्रीन में पिक्सल की बनावट में एनकैप्सुलेटेड यानी संपुरित गैस (फास्फोरस) होता है और दो शीशे के प्लेटों के बीच फंसा होता है. बिजली का करंट डालने से गैस में कुछ रसायनिक प्रतिक्रिया होती है. नतीजा ये होता है कि "प्लाज्मा" का निर्माण होता है. प्लाज्मा स्क्रीन पराबैंगना किरणें निकालती है. ये किरणें कैप्सूल के फास्फोरस की परत पर टकराकर रंग को बदलती है. यदि तस्वीरों की गुणवत्ता देखें तो प्लाज्मा स्क्रीन किसी भी एलसीडी या एलईडी स्क्रीन की तुलना में बेहतर हैं. लेकिन फिर प्लाज्मा स्क्रीन के साथ तीन कमियां भी हैं. और इसे खरीदने से पहले आपको इन तीन कमियों की जानकारी रहनी चाहिए. सबसे पहली कमी तो ये है कि प्लाज्मा स्क्रीन में वक्त बीतने के साथ साथ रंग में कमी आने का खतरा होता है. बाद में समय समय पर सुस्त पड़ रहे प्लाज्मा को ठीक करने के लिए रसायनिक प्रतिक्रिया की जरूरत होती है. इससे गैस (खासकर क्सीनॉन) से निकले विकिरण में बदलाव आता है. इससे रंग फीके पड़ने लगते हैं. इसी तरह, प्लाज्मा स्क्रीन में ब्राइटनेस के भी कम होने का खतरा होता है.
संभवतः प्लाज्मा मॉडल में जो सबसे बड़ी कमी है वह है इसका नाजुक होना. प्लाज्मा स्क्रीन एलसीडी और एलईडी मॉडल की तुलना में अधिक नाजुक होने के कारण यदि इसे एक बार नुकसान हो जाए तो इससे स्क्रीन की एनकैप्सुलेटेड गैस खत्म हो जाती है.
निर्माताओं के अनुसार, एक टेलीविजन की उम्र लगभग 40.000 से 90,000 (लगातार इस्तेमाल के) घंटे की होती है. तो हम कह सकते हैं कि मोटा-मोटी ये अच्छे से इस्तेमाल की जाए तो चार से दस साल चलते हैं. लेकिन ये अनुमान कई तरह के कारकों पर निर्भर करता है. जैसे कि टेलीविजन का मॉडल, ब्रांड, इस्तेमाल, साथ ही साथ इसकी लोकेशन और वातावरण भी.
तो क्या आप टीवी खरीदने के लिए तैयार हैं? जब टीवी के ब्रांड की बात आती है तो कई विकल्प हैं. जैसे कि एलजी, सैमसंग, सोनी. ये बाजार में सबसे विश्वसनीय और उच्च गुणवत्ता वाले ब्रांड बताए जाते हैं.
प्लीज ध्यानदें कि इस तरह के प्रोड्कट पूरी वारंटी के बाद भी मुश्किल से कुछ साल ही चलते हैं.
जहां तक आपके टेलीविजन की देखरेक की बात है तो आपने इसे जिस लोकेशन और वातावरणमें रखा है वह काफी मायने रखता है. इससे टीवी की उम्र पर काफी प्रभाव पड़ता है.
अपने टीवी को खिड़की के नजदी ना रखें. धूप के संपर्क में आने से इसके हिस्सों को नुकसान हो सकता है. इसी तरह इसे चूल्हे, किसी आग की जगह, चिमनी या गरम क्षेत्र से दूर रखें. यहां धूल, राख और गरमी से टीवी को नुकसान हो सकता है.
आप अपने टीवी के जमीन से भी संपर्क से बचाएं. या इससे कम दूरी पर ना रखें. क्योंकि धूल से इसकी स्क्रीन खराब हो सकती है.
Photo: © LG.